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उत्तर भारतीयों संग हुए दुर्व्यहार के दर्द एक बार फिर उभऱ गये। निश्चय ही पूरा देश एक है परन्तु उन मीडिया वालों पर तो सम्मान जनक अंकुश लगे, जिन्होंने ऐसे मुठ्ठीभर लोगों को पर्याप्त जगह देना अपना अधिकार समझ लिया है। हमारी यानी मीडियाकर्मियों की भूमिका पर सवाल उठने वाजिब लगते हैं। एक तस्वीर विभिन्न अखबारों में छपी थी, जिसमें आटो चालक को मूंह बांधें हुए कुछ लोगों द्वारा मारते-पीटते दिखाया गया था। मूंह बांधकर किसी को मारते-पीटते समय मीडियाकर्मियों का पहुंचना स्वाभाविक था या प्रायोजित था। इस पर हमारे जैसे पाठकों को जरूर शक होता है। पत्रकारिता क्या यहीं है। ऐसी तस्वीरों को अखबारों में प्रमुखता से स्थान देकर आखिरकार पत्रकारिता किन बातों को लोगों के बीच पहुंचाना चाहती है। वे चाहे किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्त्ता हों। किसी को भी मारने का हक नहीं है।ऐसी घटनाएं, मीडिया में पहुंचें गलत लोगों(क्षेत्रवाद के दायरे में बंधे) की सोची समझी चाल और स्थानीय पुलिस की निष्क्रियता हो सकती है। हमें दूर बैठे भोले-भाले लोगों की भावनाओं संग खिलवाड़ करने का हक नहीं हैं। गांव के लोग या हमारे जैसे लोग अक्षर को ब्रह्म मानते हैं। अखबारों में छपी खबरों को सही मानते हैं। मूंह बांधकर आटो चालक को पीटना किसी भी स्थिति में राजनीतिक कार्यवाई नहीं हो सकती है और न ही ऐसी घटनाओं को कोई राजनीतिक दल मान्यता के अपने एजेण्डे में शामिल है। किसी पार्टी के कार्यकर्त्ता बताने के बजाय उन्हें हम केवल गुण्डे, बदमाश या ऐसे अन्य शब्दों का इस्तेमाल कर अनुचित कार्यवाई पर लगाम लगा सकते हैं या जिसने भी ऐसी खबर दी है, उन्हें भी चाहिए कि कम से कम उनकी या मारपीट करने वाली पार्टी के नेताओं की बयान जरूर लगायें कि मारपीट करने वाले उन्हीं के पार्टी के थे या नहीं। प्रेस कहे कि मारपीट करने वाले लोग(विधानसभा जैसी कुछ घटनाओं को छोड़कर) किसी राजनीतिक पार्टी के हैं तो मुझे लगता है कि बहुत उपयुक्त नहीं हैं। मारपीट करने वालों के खिलाफ आईपीसी की तहत कार्यवाई की जा सकती है। मुठ्ठीभर लोगों की काली करतूतें मीडिया के सहारे ही पूरे क्षेत्र में फैलती हैं। कभी पूर्वांचल के जिले भी साम्प्रदायक दंगों के चपेट में आते थे। अब घटनाओं के बाद अखबारों में उन संप्रदायों के नाम नहीं छपते, जिसके चलते फैली हिंसा को काबू में आसानी से ले लिया जाता है। अब ऐसे दंगें नहीं के बराबर हैं। आखिर मुम्बई प्रेस के आदर्शों को अनदेखी कर लोगों के बीच कैसा संदेश देना चाहती हैं। क्या मुम्बई के निवासियों की चिन्ता नहीं है, जो मुम्बई से बाहर रहते हैं। हमें भी चाहिए कि हम जहां हैं, वहीं पर रोजगार के साधन तलाशें तो लगता है कि मुम्बई या अन्य क्षेत्रों में चल रही क्षेत्रवाद की आग पर काबू पाया जा सकता है। रोजगार के लिए लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्रों में जाना होता है। मुम्बई में उत्तर भारतीय लोग किसी कार्य को मुम्बई वालों से सस्ते में करते होंगे तो स्वाभाविक है कि उऩकी मांग सदैव बनी रहेगी। उन्हें मुम्बई से निकालना वैसे भी आसान नहीं होगा। मुझे नहीं लगता मुम्बई के लोग नासमझ हैं।
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