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निन्दक नियरे राखिये…..
जब हमें अपनों पर शक हो जाय तो उसका कोई जबाब नहीं है। आजादी दिलाने में पत्रकारिता के महत्त्व तो हमसे छिपे नहीं है। सरकार के भले ही तीन अंग हैं, जिनमें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है। संविधान में तीनों अंगों का उल्लेख हमें स्पष्ट तौर पर मिलता है परन्तु पत्रकारिता के बारे में कोई विशेष गाइड लाइन नहीं है। जब कभी भी आवाज उठती है तो खुद ब खुद पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों को संभलाने के लिए आदर्श संहिताएं बन जाती हैं। हम मान सकते हैं कि महात्मा गांधी के खादी को कुछ नेताओं ने बदनाम किया परन्तु उसके भाव अब भी अच्छे हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी बहुरूपिये लोगों के घुसने से उस पर असर देखा जा सकता है। बंद कमरों में बैठकर अनुमान के आधार पर की जानी वाली पत्रकारिता से देश को ताकत नहीं मिल सकती है। 1947 के बाद निश्चित तौर पर पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्यों से भटकाव देखने को मिल सकते हैं। विविध अखबारों और चैनलों के संचालन में धन की जरूरत पड़ती है। पत्रकारिता में मिशन के बजाय व्यवसायिकता बढ़ी है पर अब भी बड़े- बड़े घोटाले प्रकाशित होते हैं। इंटरनेट पर लोगों के विचारों के प्रकाशन से पत्रकारिता को नया रूप मिला है। विचारों को सुनने-पढ़ने में बुराई नहीं है। हमें विचार तो करने ही चाहिए। सच हो तो समर्थन करें और गलत है तो विरोध करें। ऐसा होता भी है। जब कोई गलत करता है तो लोग उसे खुद ब खुद लोग नहीं छोड़ते। इसे हम नकार नहीं सकते कि आजादी का मतलब स्वछन्दता नहीं है। सवाल कि अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह का कोई प्रतिबंध होना कत्तई उचित नहीं है। लोगों की नाखूशी कम से कम इंटरनेट के माध्यम से सामने आ जाती है। जब कभी भी किसी चीज को रोकने की कोशिश होती है तो वह और तेजी से आगे बढ़ जाती है। सरकार को इंटरनेट से खतरा अपने आप में अभिव्यक्ति पर खतरे कम नहीं है। लोकतंत्र में इंटरनेट पर रोक वाजिब नहीं हो सकती है। रोक लगाने की कोशिश तो उन चीजों पर होनी चाहिए, जिसकी वजह से देश की संस्कृति नष्ट हो रही है। उस ओर सरकार का ध्यान नहीं है। फिल्मों में गाली-गलौज या अन्य खराब चीजों को रोकने की ओर सरकार बेसुध है, वहीं आलोचनाओं से घबड़ाकर उसे रोकने की कोशिश निन्दनीय है। निन्दक को नियरे रखने की भारतीय संस्कृति है। सवाल कि वाकई सोशल मीडिया और अन्य वेबसाइट्स पर मौजूद कंटेंट से लोगों की भावनाएं आहत हो रही हैं। काफी कुछ सच भी है पर इसके आड़ में लोगों के विचारों पर प्रतिबन्ध देश के हक में नहीं है। उन्हें विद्रोही बनाएगी, जिसे ठीक नहीं कहा जा सकता है। आलोचनाओं से हमें सीख लेने की जरूरत है। उम्मीद है कि सरकार भी वहीं सोचेगी, जिसे जनता सोचती है। आखिर लोकतंत्र भी तो यहीं है। भ्रष्टाचार या विदेशों से कालेधन की वापसी की मांग के संदर्भ में नेट के सोशल प्रयास से कुछ लोगों में विशेष छटपटाहट है…संघर्ष जारी रखने की जरूरत है…
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